Sunday 10 January 2016

ये कैसी सिफारिश आई है

प्यार से हब्बी कोई पहली बार नहीं बोला था। लेकिन चीनी की चासनी सरीखी ये हब्बी की ध्वनि किसी तरन्नुम से कम ना थी। यकीन मानिए क्या नींद खुली, एकदम भक्काटा हो गया। कई बार आंखें खोल-बन्द की, पाया कि नींद वास्तव में खुल चुकी थी। लेकिन दिमाग की बत्ती बुझ चुकी थी। समझ नहीं आ रहा था कि आज करवाचौथ है या कोई ससुराल पक्ष से आने वाला है, आखिर हुआ क्या है ! वाइफी जी के एक हाथ में कप था और दूसरे में अखबार लेकिन चेहरे की मुस्कुराहट के सामने दोनों फीके थे। हब्बी की हालत पार्टी की बुरी तरह से हार के बावजूद जीते हुए विधायक सरीखी हो गई थी। चेहरे पर पल-पल बदलते भाव तय नहीं कर पा रहे थे कि भाव खाना है या तरस।
वाइफी जी ने जैसे ही बोला कि मुझे कुछ बात करनी है। हब्बी के पिछले एक महीने के कार्यकलाप एक पल में आखों के सामने से ‘फास्टफोर्वर्ड’ हो गए। हमारा फ्रिज अब पुराना हो गया है और वो छोटा भी बहुत है। बच्चों के लिए अब एक अंग्रेजी अखबार भी शुरु करना है। वाशिंग मशीन का ड्रायर जमाने से काम नहीं कर रहा है, अबकी बार मुझे फुल्ली आॅटोमैटिक मशीन खरीदनी है। एडमिशन फार्म भी निकल गए है, इस बार बच्चों का किसी बडे़ (महंगे) स्कूल में दाखिला कराना है। ये पुराने जमाने की किचिन में खाना बनाने का मन नहीं करता अब, इस बार मुझे माॅडुलर किचिन बनवानी है। ओर हां, वो आपकी खटारा गाडी़! उसे तो अब बदल ही लो। आप आफिस से आते हो तो बच्चें खिलौनें वाले का बाजा बजता हुआ समझ बाहर निकल आते हैं।
हब्बी के कानों में तो जैसे आई.सी.आई.सी. का आतंकी संगठन कदमताल करने लगा हो। हे वाइफी जी! कोई लॉटरी का टिकट निकल आया है, आपने सड़क पर किसी का नोटों से भरा बैग पाया है या दहेज़ में मिले फिक्स डिपॉजिट के भुगतान का समय आया है। आपने आमदनी का कोई रास्ता नहीं सुझाया, खर्चो का अम्बार लगाया है। हे मेरे स्वीटू बुद्धू से हब्बी जी, ज़रा अखबार तो पढ़ो। अखबार वेतन में सांतवी बढ़ोतरी की ख़बर लाया है। ये कैसी सिफारिश आई है, एक खुशनुमा झोंके सी बढ़ी आमदनी और साथ में खर्चो का तूफ़ान लाई है। हे आयोग क्या तेरे मन में समाया। जिसे अकाउंट में आना था, उसे अखबार में क्यूं आया।

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