Tuesday 12 January 2016

प्रतीकात्मक संवेदना (व्यंग्य)
वेदना के छायावादी साहित्य युग से आगे बढ़ आज सामाजिक संवेदना का युग आ गया है। व्हाट्स ऐप हो या फेसबुक मीडिया एकाएक बहुत ही संवेदक हो गए हैं। इन सोशल साइट्स की खूबसुरती ये है कि संवेदक को लाइक और कमेंट्स की गिनती से ये फ़ीडबैक भी मिल जाता है कि उसकी संवेदना में कितनी गहराई है। व्यक्तिगत संवेदना के अलावा किसी संवेदक समूह की सामूहिक संवेदना अपना अलग महत्त्व है। यदि विदना समूह की है तो शायद उनके अनुसार सामूहिक संवेदना भी अनुचित नहीं है। ऐसी वेदना से स्पेस की भी बचत हो जाती है। वेदना से ही संवेदना का जन्म होता है, वेदना संवेदना की जननी है। संवेदना को बचाना एक सामाजिक दायित्व है। वेदना के बाद संवेदना में ही जीवन है, लेकिन जीवंत संवेदना प्रतीकात्मक कैसे हो सकती है?
संवेदना प्रकट करना आजकल चलन में है, यदि कोई संवेदना प्रकट नहीं कर सकता तो वह बदचलन है। यहाँ-वहाँ जहाँ देखो, इधर वेदना और उधर सब संवेदनामय हो जाता है। रेडियोजॉकी एक पल संवेदना प्रकट करता है और अगले ही पल हनी सिंह की आँखे नीली हो जाती हैं। समाचार वाचक इतने संवेदक होते हैं कि वेदना की संवेदना में उनके लिए समाचार पढना दूभर हो जाता है। समाचार वाचक को बार-बार ब्रेक लेना पड़ता है। ब्रेक में बेहतरीन डिजाइन और टैक्नालॉजी वाला ए सी माहौल को चिल करता है। व्हाट्स ऐप और फेसबुक जैसे सोशल मीडिया पर वेदना पर संवेदना और चुटकलों का अदभुत संगम होता है। वेदना से संवेदना के इस सफ़र में चाहे अनचाहे हर हमसफ़र का भेजा हिल जाता है। एक तरफ संवेदना अपने शिखर पर होती है दूसरी तरफ सिदधू जी अपना शेर सुनाकर कहते है ठोको।
संवेदना का जन्म इसलिए होता है कि वेदना में कमी आए। आज प्रतीकात्मक संवेदना से किस वेदना या किसकी वेदना में कमी आती है ये तो प्रतीकात्मक संवेदक ही बेहतर बता सकता है। वेदना चाहे कहीं किसी बेटी के साथ दुस्साहसिक घटना की हो, चाहे किसी की आस्था पर आघात की हो, या प्राकृतिक आपदा की हो, प्रतीकात्मक संवेदक सदैव अपनी भूमिका का निर्वहन करने के आगे आते हैं। शायद वेदना को ही समझना होगा कि वह अपने दर्द का इलाज इस प्रतीकात्मक संवेदना में ही ढूँढ ले।

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