Tuesday 12 January 2016

मालीदास की खोज

मालीदास की माली हालात सुधरने का नाम ही नहीं ले रही थी, मालीदास ने बहुत कुछ बदल कर देखा लेकिन मालामाल होने का उसका सपना तो जैसे रुठ गया था। जिसने जन्म दिया हैवह उसके जीवन-यापन का इन्तजाम पहले से ही कर देता है, ऐसा सुन मालीदास की तो जैसे दिव्य द्रष्टि जाग्रत हो गयी, मालीदास को लगने लगा कि दुनिया में उसके नाम का खजाना भी कही ना कही होगाबस खजाने को खोज निकालना है। क्या सुबह क्या शाम, क्या मंदिर क्या गुरुद्वारा, क्या चौराहा क्या तिराहा, मालीदास कहाँ-कहाँ नहीं गया लेकिन जहाँ देखो भीड भीड को देखकर भडक रही हैजैसे सब अपना खजाना खोजने में लगे हुए हो। एक भीड दूसरी भीड के साथ मिलकर भीड का कुनबा बना रही है। बढती भीड को देख अपने अमुल्य योगदान से स्वप्रफुल्लित भीड, भीड के भीडेपन को निरन्तर बढा रही है। मालीदास की कोफ्त तब और बढ जाती है जब वह दूर प्रकाशमान छीड को देखता है जो कल तक उसके साथ भीड का ही हिस्सा थी। छीड भीड का कुनबा बढता देख मुस्कुरा रही है। मालीदास को जिसकी खोज थी, वो शायद इस भीड में नही था। भीड से छीड तक का सफर मालीदास के दिमाग की बत्ती बुझा देता है। मालीदास की बुझी बत्ती से उसे अपना आगे का जीवन अंधकारमय नजर आने लगता है, अब मालीदास को बस ज्ञानप्रकाश में ही उम्मीद की आखिरी किरण नजर आती है कि इस अन्धकार को बस ज्ञानप्रकाश ही मिटा सकता है।
अथाह ज्ञान से फटे जा रहे ज्ञानप्रकाश को जैसे मालीदास जैसे की ही तलाश थी। ज्ञानप्रकाश मालीदास पर अपने ज्ञान का प्रकाश डालते हुए कहता है कि भीड और छीड के बीच पुरातन काल से चला आ रहा एक गहरा रिश्ता है, भीड छीड की माँ की तरह हैछीड का जन्म भीड से ही होता है। छीड को अपने पुत्र की तरह मानने वाली भीड खुद भूखा रहकर छीड का पेट भरती है, भीड सांसारिक मोहमाया के पास में बंधे होने के कारण ऐसा करने के लिए मजबूर होती है। भीड कही ना कही ये मंशा भी रखती है कि वह छीड के लिए इतना कुछ कर रही है तो कल जरुरत के समय छीड भी मेरी मदद करेगी। लेकिन ऐसा होता नहीं हैछीड इस लेनदेन से ऊपर उठ चुकी होती है। छीड जानती है कि उसका जन्म किसी के अहसान उतारने के लिए नहीं हुआ है बल्कि उसे अपने कर्म को अंजाम देना है। उसके भाग्य में उसे शाही जीवन और भोग-विलास आदि भोगने के लिए बनाया गया हैइसलिए उसे अपना यही कर्तव्य निभाना है।  कर्म की महानता को समझने के कारण ही वह भीड से छीड बनी है। छीड एक म्युजिक मास्टर की तरह है जिसके हाथ मे एक छडी होती है, भीड में यदि कोई छीड की सुर साधना को बेसुरा करने की कोशिश करता है तो छीड छडी लहराकर उस भीड को सुरबद्ध करती है।
ज्ञानप्रकाश ने मालीदास के सौ वाट के बल्ब को जैसे ग्यारह हजार की लाइन से जोड दिया था, मालीदास की खोज यही तक पहुँची कि हर कोई इस भीड से निकलना चाहता है लेकिन ये इतना आसान नहीं है, इस भीड से निकलने के लिए ना जाने कितनी भीड को निगलना पडता हैवो भी साबुत। भीड में जो ज्यादा से ज्यादा भीड को निगलने की काबलियत का तमगा पा लेता है, वह उतना ही छीड के सिंहासन  की तरफ "लीड" ले लेता है। छीड के लिए ये भीड भीड नहीं है, ये भीड ही छीड की रीढ है, छीड आज जो कुछ भी है इस भीड के दम पर ही है। भीड पुरखो से चली आ रही रीत को यूँ ही निभाती चली आ रही है और गाती रही है "हर घडी बदल रही है रुप जिन्दगी…”, लेकिन भीड की घडी के चेहरे पर जमाने से बारह के बारह ही बजे है, उसकी समय की छडी जैसे अटक गयी है, उधर छीड की छडी के लहराने में निरन्तरता बरकरार है। मालीदास को समझ आ गया था कि कि जिसके हाथ में छडी होगी, धुन उसकी ही बजेगी।छडी के लिए मालीदास की खोज एक बार फिर शुरु होती है।

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