Tuesday 12 January 2016

लागा चंदा में दाग छुडाउ कैसे   

"चंदा रे चंदा रे कभी तो जमीं पर आ" जावेद अख्तर के लिखे और हरिहरन के गाए,इस गीत में चंदा को जमीन पर आने का आमंत्रण दिया गया है। इसी गीत में कहा भी गया है कि यदि जमीन पर आने में लज्जा आ रही है तो बादलो को ओढ के आ जा। चंदा किस को नहीं चाहिए, आफिसक्लब, ग्रुप में, किसी के जन्मदिन पर गिफ्ट देना हो या न्यु ईअर पार्टीदिवाली आदि को सैलिब्रेट करना हो सब चंदा करके ही तो होता है। चंदे की चमक से कोई भी प्रोग्राम उत्सव का रुप लेकर दमक उठता है। वैसे तो काले रंग के कपडों मे हमारी बालीवुड फिल्मों मे किसी किरदार की नकारात्मक छवि को दर्शाने के लिए किया जाता हैलेकिन जब चंदा बादलों के काले परिधान में आता है तो उसकी खूबसूरती चौगनी बढ जाती है। चंदा कोई गली मोहल्ले तक सीमित नहीं है, चंदा तो राष्ट्र्व्यापी है। राष्ट्रीय स्तर के बडे़ बडे़ उत्सवो की चमक-दमक के पीछे चंदा अपनी महत्वपूर्ण भुमिका में होता है। जब ये चंदा रात के बारह बजे काला लिबास ओढे आता है तो इस चंदा पर सबकी नजर टिक ही जाती है, टिके भी क्यों नाइस काली रात में ही तो चंदा के दाग साफ-साफ उजागर होते है। बात तब और बडी हो जाती है, जब एक नहीं चार-चार चंदा आ जाए, वो भी ऐसे चंदा जिनके सामने नौलक्खा भी फीका साबित हो जाए।
लागा चंदा में दांग छुडाउ कैसे, अब छुपाउ कैसे। यूँ तो आजकल कहा जाता है कि दाग अच्छे है लेकिन दाग जब चंदा में हो तो गले में फंदा लग जाता है और खाँसते-खाँसते बुरा हाल हो जाता है। ऐसा फंदा लग भी जाए तो राहत की बात ये है कि भगवान ने इसके लिए एक फ्री का इलाज बनाया है, वो इलाज है, फ्री का पानी पीजिए और फंदे से निजात पाइये। अब जब इलाज फ्री का हो तो भला फंदा लगने की चिंता क्यों करना, खुल के बोलो, दाग अच्छे हैं। चाहे दागी हो जाए चंदा या फिर गले में लगे फंदालेकिन इस बहाने फ्री का पानी मिल रहा है तो उसे क्यों छोडा जाए। चंदा राष्ट्रीय ही नहीं बल्कि एक अन्तर्राष्ट्रीय जरुरत है, तभी तो ब्रिक्स सम्मेलन में एक चंदा बैंक बनाया गया। चंदा तो चंदा है राष्ट्रीय हो या अन्तर्राष्ट्रीय, एक को गलत और एक को सही ठहराया जाए, ये कहाँ का इन्साफ है। जब प्राकृतिक चंदा ही दाग वाला है तो मानवीय चंदा से बेदाग होने की उम्मीद करना, भला कैसे उचित ठहराया जा सकता है।
वैसे हमारे बचपन से ही चंदा एक रहस्य या कहें अनसुलझी पहेली की तरह होता है। "चंदा मामा दूर के, पुए पकाएं बूर के बचपन में चंदा की कुछ ऐसी ही परिभाषित किया जाता है। जैसे-जैसे जवानी आती है, चंदा मामा की शक्ल को छोड़ माशुका का शक्ल का हो जाता है। दिन के उजाले में ये चंदा कभी सामने नहीं आता, ये रात के अंधेरे में ही निकलता है, वो भी रोज शक्ल बदल-बदल कर, शायद अपनी पहचान छुपाने के लिए ही ऐसा करता होगा। ऐसे रहस्यमयी चंदा को जो-जो भी  ग्रहण कर लेगा, उसे चंद्रग्रहण लगेगा या चंद्रयान की सैर करेगाइस रहस्य से समय ही पर्दा उठाएगा।

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