Tuesday 12 January 2016

मच्छरों की फौज

आम आदमी हो या मच्छर, मसले  जाते रहना, नया नहीं है। दोनों ही इसे अपनी किस्मत मान चुके है। मच्छर को बस इतनी समझ नहीं थी कि वो कभी हाथी नहीं बन सकता। लेकिन आदमी की तैयारी पहले से ही आम की फसल काट ख़ास बनने की थी। आदमी तो आदमी ठहरा, सो दे दिया मच्छर को धोखा। देखते ही देखते, आदमी खास हो गया। एक पल के लिए भी उसके मन में ये नहीं आया कि अपनी खास बनने की यात्रा मे मच्छर को भी साथ ले लेता। सोचा होगा एक मच्छर मेरा क्या बिगाड़ लेगा! ज्यादा तरररर फरररर चिल्ल-पो की तो मसल दूंगा। 
मच्छर के मन में जहर भरा है, उसकी कुंठा अब गुब्बार में बदल चुकी है। अब वो अपनी उपस्थिति दर्ज कराना चाहता है। जिगरी दोस्त से धोखे ने उसके दिल पर चोट की है। जिसके साथ वो कभी "चलो दिलदार चलो" गुनगुनाया करता था, उसी की दगाबाजी ने  दिलजला बना डाला। अब तक मसलजाल में उसका  एक ही साथी था, दोनों आपस में अपना गम बाँट लिया करते थे। जमाने से जमाना उसे मसलता रहा, इसका उसे ज़रा भी मलाल नहीं था। मच्छर सोसाइटी में अब वो मुंह दिखाने लायक नहीं रहा था। उसे पता नहीं था कि ये दोस्ती उसे कहीं का न छोड़ेगी।
बात झुग्गी, झोपडी या रेलवे स्टेशन तक सीमित नहीं है। घर से निकलते ही कुछ दूर चलते ही, सब कुछ भूल जाते है अपना कल। आम आदमी को मच्छर की तरह से मसलने वाली मसलपावर के खिलाफ परिवर्तन की ताल ठोकी गई। बीते कल का दर्द को यादों में संजोया भी बताया भी गया। परिवर्तन वालो ने भी वादा निभाया, आम से ख़ास में बदल गए। दर्द वालों ने जो दर्द संजो कर रक्खा था, उन्होंने भी बाँट दिया। अब दर्द का बोझ उतारकर हल्के हो गए हैं, हल्की-फुल्की बातें कराटे हैं। इतिहास से सीखा होगा कि अतीत को भूल आगे बढ़ने वालो का ही विकास हुआ है। डेंगु का आतंक कुछ  अतीत को भूलने वालो के लिए एक सांकेतिक घंटी तो है। कहीं ऐसे मच्छरों की फौज ना खडी़ हो जाए।

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